बेटी होती तो....
              श्री धनबहादुर मगर,

‘अरे! इस जगह में तो बिल्डिंग बन गया है!’
‘ओह! दो वर्ष हो चुका हैं आप अभी देख रहे हो।’
‘इस घर में तो एक वृद्धा रहती थी। वो कहाँ रहती है अब?’
(कुछ गुसैल भाव मे) ‘वो वृद्धा तो कब की मर चुकी।  वृद्धा मरने के  बाद उस जमीन के लिये वृद्धा की बेटों के बीच मे कितना झगडा हुआ था। सारे मोहल्ले को पता हैं |’
रज्जो को सुन के ‘ दथ थेत्तेरेकी ! एसा भी बेटा होता है क्या’ मेरे मन मन मे ही मैंने एसा कहा।
  मै चुप था। यह देखकर ‘एसा एक कमरा वाले बिल्डिंग बनाना तो सिर्फ मकान बनाने की दुःख उठाना हैं।’ – उस घर के दिखाते हुए रज्जो कह रही थी। मै यह सुन रहा था।  सडक पर गाड़िया इधर उधर चल रही थी। सडक और मेरे पास के सभी आवाजों को चिरते हुए मुझे मेरे मन की आवाज सुनाइ दे रहा था। मेरा मन चित्कार कर  रहा था  ‘साला बेटों के जात। एक भी बेटी होती तो ....।’
  यह जगह मे मैं अपरिचित था। बिलकुल नया था। फिर भी राज्जो को काम मे हात बटाते-बटाते उसके साथ चल रहा था मैं उस दिन भारत के जनगणना करते हुए । सायद लोगों से नाराज थे दिन। चारों ओर काला बादल छाया हुआ था। ठण्ड बहुत था । लग रहा था ठण्ड के कारण दिल भी जम जाएगा।  राज्जो के साथ जनगणना करते करते घर-घर पहुँचते पहुँचते हमलोग उस वृद्धा के घर पहुँचे थे। घना काली मेघ से ढकी हुई सडक किनार पर खडी धेर सारी बिल्डिंग के बीच मे था पुराना और मैल से ढकी छोटा सिर्फ एक कमरे का घर। उस वृद्धा का घर की बासस्थान। उस दिन दरवाजा  कमरे के भितर से ही कुन्डी लगाया हुआ था। लोगो का कहना है हर वक्त यह दरबाजा ऐसे ही बन्द रहते हुए देखते हैं। तीनबार सायद दरबाजा पर रज्जो ने खटखटाया तब जाकर अन्दर से वृद्धा ने दरबाजा खोली। दरबाजा के च्वाँइ इ इ इ ...  आवाज के साथ भितर से एक कमजोर स्त्री आवाज सुनाइ पढी- ‘कौन हैं?’  अन्दर आने का ईशारा वृद्धा से प्राप्त होते ही रज्जो ने ‘अन्दर चलिए’ कहा और हम दोनों अन्दर गए । कमरे के अन्दर का दृश्य अति दयनीय लगा मुझको। रज्जो ने तेज आवाज मे उसे चाहिए हुए जानकारी के लिए वृद्धा से प्रश्न करने लगी। मैं कमरे की नजराना ध्यान से देख रहा था।
सायद,  तेल के लेकिन पानी रखी हुई चार-पाँच पोलिथिन के जार धुल और धुवाँ के कारण मैल के धब्बे से ढकी हुआ दिखाई दे रहा   था।  एक छोटी सी तीन पत्थर से बने हुए चुह्ला जिस मे सिर्फ राख का ढेर था। कुछ बर्तन था वो भी धुल से ढकी हुआ और एकदम ठण्ढी। कपडें तितरबितर स्थिति मैं और काफी गन्धा लेकिन लग रहा था की ठण्ड से वृद्धा को बचाने मे वो काफी नही था।
‘अब चलें?’ रज्जो की यह शब्द ने मुझे उस यथार्थ से अपने यथार्थ मे निकाला। अपने साथ लाया हुआ कैमरा बैग से निकालकर और दिखाते हुए कैमरा वृद्धा के नज्दिक जाकर ‘फोटो ले लेंगे हाँ माजी?’ कहकर लेन्स मिलाके मैने फ़्लैश के साथ एक फोटो ले लिया। दिनभर के काम निप्टाकर रात को वही फोटो को फोटोसप मे श्याम स्वेत बनाकर और फ्रेम मे भी डालकर फेसबुक मे अपलोड किया मैने। पुरे सप्ताह दिनभर मे उस फोटो ने सैकड़ो अच्छे कमेन्ट इला । सभी कमेन्टों मे ‘फोटोजेनिक माजी वा माइ वा वृद्धा वा फेस’, ‘सुन्दर’  ज्यादा लिखा हुआ था।
सम्पूर्ण जीवन में धुप छाव और हवा ने बनाया हुवा बेपसन्द के  चित्र अपने मुखडा मे चिप्का के कष्ट कर वर्तमान ले के गया हुआ  आदमी के मुखडा भी ‘फोटोजेनिक, सुन्दर’  हो सक्ता हैं क्या? मैं सोँच रहा था।


सप्ताह के पुरे ६ शाम मैं वही रास्ता होकर अपना घर या डेरा वापस आता हु । उस रास्ता होकर हर एक यात्रा मे मैंने कभी भी उस एक कमरे के घर पर बत्ती जल हुआ नही देखा। कभी-कभी धुवा निकलता देखा लेकिन हमेशा से कमरा अन्धेरा ही दिखता था। कभी-कभी बहुत ठण्डे दिन मे दो लकडी जोडकर शरीर सेखती दिखाई पढती लेकिन लकडी मे आग की जगह धुवा ज्यादा, कुछ राख के ढेर दिखता था। उससे गरमी का अनुभव बहुत कम होता  होगा लगता था।
जब सामने से दृशय हटती हैं तो जब तक उसे सम्झाने की कुछ कारण वा चिजें नही आती तो लोग उसे भूल ही जाते हैं। यही आदमी का स्वभाव हैं।
उसी रास्ते रोज चलता था मैं। याद करे बिना चलते-चलते मैंने उस एक कमरे के घर को भूल ही चुका था।
‘रज्जो ...’
‘जी बोलिये’  कुछ बर्तन के आवाज के साथ रज्जो की आवाज आयी।
‘वो वृद्धा कब से अकेली रहती थी?’
  बर्तन साफ करते-करते रज्जो ने –‘कौन  वृद्धा?’ पुछी।
‘वही जिसकी अक्सर हम बात करते आ रहे हैं। वो बिल्डिङ बनाया है ना अभी, एक कमरे वाली। जहा छोटा सा घर था, वही रहने वाली।
‘चाय की कप जरा इधर दिजिए तो।’ ‘कुछ वर्ष पहले से।’   ...... ‘क्यों?’
‘ओ।’
‘उस के बेटों?’
‘दिल्ली मैं। सुनरहा हुँ, बहुत पैसा कमाकर धनवान बन गए हे । हाल शादी कर के उधर ही रह रहे हे ।   
‘वो लोग अपनी माताजी को देख्ता नही था क्या ?’
‘होगा सायद! हम लोगों ने जब से जाना हैं तब से वो वृद्धा अकेले ही हैं उस घर पर।’
माताजी को अकेले उस अवस्था मे छोड के चलने जाने वाला बेटा भी बेटा हैं क्या? ऐसे लोगो क्या धनवान होता हैं? साला बेटों..। मै  मन ही मन में गुस्सा हो गया।
रज्जो बर्तन पुरा साफ कर चुकी थी। साफ किये हुए बर्तननों बोल मे डालकर उठाती हुई  ‘जरा भितर रख दिजिए तो’ दरवाजे पर खडी होके रज्जो बोली तो मैं पुनः यथार्थ मे आकर बोल लेने लगा।
‘देर से हो लेकिन बेटा ही हों।’ जैसा मुहावरा अब सच में पुराना हो गया हैं, मुझे लगा।
वृद्धा को उस अवस्था मे देखा जरुर लेकिन उन्होने अपनी अवस्था पर तरस खा के भीख माग कर खाते हुए कभी नही देखा। ये बात किसी से भी पता नही चला।
हमारे तो अफिस मे व्यवस्थापक भी व्यवस्थापिका हैं। कभी-कभी हम लोगों को उदार हृदय दिखाते हुए कुछ चिज बाँटते रहती हैं। कभी अपनी माँ को खुब प्यार करते हुए कहानी हम लोगों को सुनाती हैँ। उनकी बातों से ही पता चलता है कि वो अपनी माँ से बेसुमार प्यार करती हैं। अब मुझे पूर्ण विस्वास हो रहा था की बेटीयां सिर्फ दूसरे के घर सजाने की चिज की तरह नही होती। अब लोगों को अपने दिमाग से एसा सोंच निकालना होगा। मैं मन ही मन सोँचता रहा।
आज कम्प्युटर मे डेटा इन्ट्री करते समय मेरे उंगलीयां से ज्यादा और ही चल रहा था। सिर्फ उंग्ली ही नही दिमाग भी ठिकाने पे नही था। दिनभर मोनिटर मे कभी वृद्धा, कभी चेहरे बिना के बेटों के आकृति तो कभी हमारी कार्यालय की व्यवस्थापिकाकी चेहरा दिख रहा था ।
शाम मे, बैग में दो रसगुल्ले रज्जो के लिये, एक पान खुद के लिये और एक सो ग्राम कच्चा मिर्च दोनों के लिये डालकर वही रास्ता अपने डेरा लौटा मैं। रास्ते मे उस एक कमरे के बिल्डिंग पर एक नजर लगाया इस दिन मैने। रास्ता के तरफ एक ही खिडकी था उस मकान का। वह घर ही देखने के लिए मैंने खिड़की से अन्दर देखा। अन्दर बाल बिलकुल सफेद हो चुकी दूसरी एक वृद्धा हिटर के ताप मे अपना हात-पाउ सेक्ती हुई बाहर देख रही थी।
वह नया बिल्डिंग ने फिर सम्झाया हुआ वृद्धा की याद मुझे साँझभर पकड रखा।
‘वो वृद्धा तो कब की मर चुकी।  वृद्धा मरने के बाद उस जमीन के लिये वृद्धा के बेटों के बीच मे कितना झगडा हुआ था। सारे मोहल्ले को पता हैं।’  रज्जो की यह वाक्य ने मुझे उस रात लम्बे समय तक निंद नही आने दिया। उस वृद्धा के बेटे के रूप मे मैंने खुद को खडा किया। माजी, घर, उसकी देहान्त के बाद सम्पति के लिए झगडा के बीच मे फिर खडा किया। मैं खुद को कुछ पलके लिए भी वहा खडा नहीं कर पाया और निंद मे मस्त रज्जो को गले लगते हुए ‘बेटी को ही जन्म देना मेरी रज्जो’  मैंने बगैर अपनी होठ खोले बिना कहा।
अन्धेरा को कुछ पोंछते कमरे को मन्द प्रकाश कर के जिरो वाट के बल्ब मुझे घुर के देख रहा था। रज्जो मस्त निंद मे थी। मैं उसको फिर उस वृद्धा के रूप मे देख रहा था। मै उसे उस रूप मे सोंचते हुए  अव्यक्त दु:ख के चपेट मे आ रहा था। कमजोर प्रकाश मे दिख रहा रज्जो के हाथ पकड़ने के लिए मै अचानक खड़ा हो गया उस सोंच के संसार मे तो मैं कुछ जोड से हिल गया। मै हिलने के कारण सायद रज्जो के आँख खुल गयी।
‘अभि तक सोया नही?’ कह कर फिर रज्जो की आँख बन्द हो गयी।
‘तुम सो जाऊ , सो जाऊ ’- का उत्तर मैंने दिया।
घडी देखा तो उस मे बारह बज चुका था। ‘आप भी सो जाइये’ कह कर दूसरे साइड ले के रज्जो पुनः सो गयी।

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